लाल बाबू पांडे। इस्लाम के पवित्र महीने जिल्हिज्जा में दसवीं तारीख को मनाई जाने वाली ईद-उल-अजहा, जिसे कुर्बानी की ईद भी कहा जाता है, इसका विशेष महत्व है। इस पर्व का मूल उद्देश्य हजरत इब्राहीम (अलैहिस्सलाम) की उस अद्भुत परीक्षा को याद करना है, जब अल्लाह ने उन्हें अपने प्रिय बेटे हजरत इस्माइल (अलैहिस्सलाम) की कुर्बानी के लिए आज्ञा दी थी।
जब इब्राहीम (अलैहिस्सलाम) ने अपने बेटे की कुर्बानी के लिए तैयारी की, तो अल्लाह ने उनकी ईमानदारी और त्याग को देखते हुए बेटे की जगह एक दुम्बा (भेड़) को कुर्बान करने का आदेश दिया। तब से इस पर्व को हर वर्ष मनाया जाने लगा।
मौलाना नजमुद्दीन अहमद ने बताया कि जब कुर्बानी तकवा के साथ अदा की जाती है, तभी अल्लाह उसे स्वीकार करते हैं। कुर्बानी का उद्देश्य केवल खून और गोश्त अदा करने का नहीं है, बल्कि यह ईमानदारी और अल्लाह के प्रति श्रद्धा का प्रतीक है।
बकरों की बिक्री में वृद्धि
ईद-उल-अजहा (कुर्बानी की ईद) आज शनिवार को मनाई जा रही है, जिसके चलते बकरों की बिक्री में काफी तेजी आई है। शहर के द्वार देवी चौक पर दूर-दूर से बकरों को बेचने के लिए लाया जा रहा है। यहां 15 हजार से लेकर 55 हजार तक के बकरों की बिक्री की जा रही है।
लोग अपनी आर्थिक स्थिति के अनुसार, बकरों की खरीदारी कर रहे हैं। जो लोग आर्थिक रूप से सक्षम हैं, वे तीनों दिन बकरों की कुर्बानी करते हैं। मुस्लिम धर्मावलम्बियों के लिए यह पर्व धूमधाम से मनाने का एक अवसर होता है, जो आपको परिवार और दोस्तों के साथ एकजुट करने का भी शुभ अवसर प्रदान करता है।
कुर्बानी के नियम
- जिनका धन और संपत्ति का पूरा माप साहेबे नेशाब में आता है, उनके लिए कुर्बानी अति आवश्यक है, जो कि साढ़े सात तोला सोना या साढ़े बावन तोला चांदी की श्रेणी में आता है।
- यदि पति और पत्नी दोनों इस श्रेणी में आते हैं, तो उन दोनों पर कुर्बानी वाजिब होती है। वहीं, अगर माता-पिता साहेबे नेशाब नहीं हैं, तो उन पर कुर्बानी का नियम लागू नहीं होता।
- कुर्बानी सबसे पहले जीवित व्यक्ति के नाम से की जाती है, और उसके बाद मरे हुए परिजनों के नाम से होती है।